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KHIL GAYA JAWAKUSUM

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खिल गया जवाकुसुम पुराग्रन्थों में व्यक्त प्रेम की ये भावाभिव्यक्तियाँ भले ही तदरूप बाद की पीढ़ी के लिए ग्रहणशील न रह जाएँ।भौतिकता और बाज़ारवाद के व्यामोह से घिरे जान पड़े कि प्रेम किसी और कालखण्ड के लिए ही पुनीत था।उसे यह प्रतीति ही न हो कि इसी कठिन पंथ से होकर परमात्मा तक पहुँचा जा सकता है जबकि कहा भी जा चुका हो कि– ‘प्रेम -प्रेम सब कोऊ कहत,प्रेम न जानत कोय।'(रसखान) पर यह कहकर भी इसी आशय का उद्घाटन करना ही कवि का अभीष्ट है कि प्रेम को जानना दुरूह है किंतु असम्भव नहीं ।असम्भव होता तो क्या महादेवी कह पातीं — ‘ तुम मुझमें प्रिय , फिर क्या परिचय ।’ ध्यानस्थ होकर ही अनुभव किया जा सकता है कि प्रेम अन्तः में निर्बाध संचरण करता है। निःशब्द गुंजरित होता है।इस गुंजान को सुनने के लिए विशिष्ट कोटि के श्रवण चाहिए।इस विराट के साक्षात्कार के लिए प्रेमिल नयन और इसमें डूबने के लिए अभिन्न चैतन्य आत्म।बहुवर्णी इस प्रेम का अनंत प्रसार और दिगंत विस्तार साधारण -जन के वश में नहीं था अन्यथा जो निर्ब्याज,निःस्वार्थ, सच्चा और तर्कातीत है ; जिसमें मानवीय बनाने की अपार शक्ति है वह आज इतना उपेक्षित व तिरस्कृत नहीं होता। ‘प्रेम’ की आड़ में दैहिक और भौतिक वासनाएँ दीर्घजीवन नहीं पातीं।बलात्कार और निर्मम हत्याओं से कोमल नेहनाते असमय काल-कवलित नहीं हो जाते। मशीनीकरण के इस भयावह दौर में जब चारो ओर घृणा ,स्वार्थ और ईर्ष्या चरम पर है तब बहुत जरूरी लगा कि कोई इस तरह का भाव- संचयन हो जिसमें प्रेम की कोमल कामनाएँ ,मनोहर भंगिमाएँ और अंतः की सच्ची व पवित्र भावनाएँ अभिव्यक्त हों ; फलस्वरूप यह प्रेम कविताओं संचयन आपके सम्मुख है।

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SKU: 978-9390502912 Category:

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