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Yatra-Antaryatra
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लेखक डॉ वेदप्रकाश पांडेय जी कहते हैं- “मेरा जन्म जिस ग्रामीण समाज और परिवेश में हुआ था उसमें यात्रा के लिए यात्रा जैसी किसी अवधारण की गुंजाइश नहीं थी। हमारे घरों में चार धामों (बदरीनाथ, रामेश्वरम, पुरी और द्वारिका) की यात्रा के अतिरिक्त अन्य किसी यात्रा (यायावरी, देशाटन, घुमक्कड़ी, पर्यटन, भ्रमण, देश-दर्शन) या पर्यटन की कोई कल्पना नहीं थी। हाँ, अयोध्या, काशी, मथुरा, वृन्दावन और गया तक कोई-कोई जाता था। कार्तिक की पूर्णिमा और माघ की अमावस्या को नदी-स्नान का प्रचलन था। लोग निकट की किसी नदी में स्नान कर लेते थे। ज्यादा लोग अयोध्या की सरयू और प्रयाग की गंगा (संगम) में स्नान के लिए जाते थे। बस, गये और आये। स्नान के बाद अयोध्या में हैं तो हनुमानगढ़ी, राम-जन्म-भूमि, कनक भवन के अतिरिक्त छोटे-बड़े कुछ और मन्दिरों के दर्शन किए-चूड़ा-भूजा-सत्तू-गुड़ खाए, अपना झोला-गठरी उठाए, बस में सवार हुए, घर आ गये। यही हाल प्रयाग का भी था। वहाँ गंगा-स्नान के पश्चात गंगा की रेती में कहीं भी धूप में बैठकर घर से लाए चने-चबेने का भोग लगाया, गीले कपड़े सुखाया, लोटे में गंगाजल भरा, अपनी मोटरी-गठरी सिर-काँधे पर रखा, पाँव-पैदल इलाहाबाद का किला, किले में स्थित किन्तु प्रतिबंधित अक्षयवट (अब दर्शनार्थ सुलभ) और ‘आनन्दभवन’ देखा। तत्पश्चात रेलवे-स्टेशन या बस-अड्डा की ओर रुख किया। देर-सवेर घर आ गये। उस जमाने में न सबके पैरों में जूते-चप्पल होते थे न देह पर ऊनी वस्त्रा। यह सब थोड़े से धनवानों को ही नसीब था। परिणामतः हमारे गाँव-घर के स्त्राी-पुरुष जब इन तीर्थों से लौटते थे तो उनमें से अधिकांश ठंड के शिकार हो जाते थे।”
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